उत्तराखंड राज्य की उम्र 17 साल पूरी हो गई और यह 18 वें वर्ष में लग गया यानि यह वयस्क होने जा रहा है। 18 साल की आयु में किसी व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिल जाता है। शायद यह समझा जाता है कि वह फैसले लेने में सक्षम हो गया है। नवंबर 2018 में उत्तराखंड भी वयस्क हो जाएगा। क्या समझा जा सकता है कि राज्य में बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं पर कुछ ज्यादा करने की जरूरत नहीं है।
क्या शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वरोजगार, गुड गवर्नेस और अन्य सेवाओं के क्षेत्र में हम सक्षम हो गए हैं। क्या हर व्यक्ति के लिए तरक्की का रास्ता खुल गया है। लेकिन आईएएस वीक पर मुख्यमंत्री ने अफसरों से जो सवाल पूछे, उनको देखते हुए तो यही कहा जा सकता है, 17 साल बाद भी इस चुनौती पर मंथन हो रहा है, राज्य में विकास की नींव कैसे डाली जाए। आइडिया मांगे जा रहे हैं। प्लानिंग और क्रियान्वयन की बात तो बाद की है। क्या आज 17 साल बाद भी हम वहीं हैं, जहां 9 नवंबर, 2000 को थे।
मैं अभी तक के विकास को खारिज नहीं कर रहा। राज्य बनने के बाद विकास कार्य हुए हैं। मैदानी जिलों में उद्योग खुले हैं, रोजगार की संभावनाओं में वृद्धि हुई है। नई सड़कें बनी हैं और बन रही हैं, भले ही निर्माण धीमी हो रहा है। शिक्षा में कुछ काम हुआ है। नये अस्पताल खुले हैं। सरकार और आम व्यक्ति के बीच की दूरी लखनऊ के जमाने की तुलना में कम हुआ है। सियासी विकास हुआ है। जो भी विकास हुआ है, उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। एक तरफा यह कह देना कि राज्य बनने से कुछ नहीं हुआ, गलत हो सकता है।
फिर से मुद्दे पर आते हुए, मैं मुख्यमंत्री के सवालों पर सवाल नहीं उठा रहा हूं। उनके सवाल वर्तमान स्थिति को देखते हुए सही हैं, क्योंकि माहौल ही कुछ ऐसा है। मुख्यमंत्री ने ऐसा महसूस किया होगा, तभी तो उन्होंने यह सवाल उठाए हैं, जिनको राज्य गठन के पहले दिन ही पूछा जाना चाहिए था। क्योंकि उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहने के समय अलग राज्य के लिए आंदोलन की वजह भी कुछ इसी तरह की चुनौतियां थीं, जिनके जवाब आज सीएम ने नौकरशाही से मांगे हैं।
अगर पहले दिन से ही इन पर ध्यान देकर योजनाएं बनाकर सही पात्रों तक पहुंचा दी जातीं, तो शायद आज के सवाल कुछ और होते। उत्तराखंड के बालिग होने के दिन तक क्या हमें इन सवालों के जवाब मिल जाएंगे। क्या इन पर योजना और क्रियान्वयन से कुछ रिजल्ट मिल जाएंगे। क्या हमें ऐसी उम्मीद राज्य सरकार और उसके सिस्टम से करनी चाहिए।
मुख्यमंत्री ने आईएएस वीक के उद्घाटन पर नौकरशाही से सवाल किया। जीरो बजट की कौन सी कल्याणकारी जन योजनाएं चलाई जा सकती हैं। चकबंदी कौ कैसे प्रोत्साहित किया जाए। किसान की मदद के लिए आपका क्या विजन है। स्कूली शिक्षा का स्तर कैसे सुधारा जाए। पहाड़ों में स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए क्या कदम जरूरी हैं। मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष का आम जनता के हित में अच्छे से अच्छा उपयोग कैसे होना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाओं को कैसे मजबूत किया जाए। सीएम ने नदियों को पुनर्जीवित करने को लेकर भी विचार साझा करने को कहा है।
17 साल बाद भी ये चुनौतियां दूर नहीं की जा सकीं तो कितना वक्त चाहिए उत्तराखंड के सरकारी सिस्टम को। सीएम ने उत्तराखंड की नौकरशाही से आइडिया और सहयोग मांगा है, उम्मीद है छह माह में ही सही कोई न कोई आइडिया मिल जाएगा और 9 नवंबर 2008 तक धरातल पर भी उतर जाएगा। अगर ऐसा नहीं हो सका तो समझा जाएगा कि आज भी वही हुआ है, जो वर्षों पहले से होता आया है। फिर से सवालों और संकल्पों के किस्से..।
क्या शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वरोजगार, गुड गवर्नेस और अन्य सेवाओं के क्षेत्र में हम सक्षम हो गए हैं। क्या हर व्यक्ति के लिए तरक्की का रास्ता खुल गया है। लेकिन आईएएस वीक पर मुख्यमंत्री ने अफसरों से जो सवाल पूछे, उनको देखते हुए तो यही कहा जा सकता है, 17 साल बाद भी इस चुनौती पर मंथन हो रहा है, राज्य में विकास की नींव कैसे डाली जाए। आइडिया मांगे जा रहे हैं। प्लानिंग और क्रियान्वयन की बात तो बाद की है। क्या आज 17 साल बाद भी हम वहीं हैं, जहां 9 नवंबर, 2000 को थे।
मैं अभी तक के विकास को खारिज नहीं कर रहा। राज्य बनने के बाद विकास कार्य हुए हैं। मैदानी जिलों में उद्योग खुले हैं, रोजगार की संभावनाओं में वृद्धि हुई है। नई सड़कें बनी हैं और बन रही हैं, भले ही निर्माण धीमी हो रहा है। शिक्षा में कुछ काम हुआ है। नये अस्पताल खुले हैं। सरकार और आम व्यक्ति के बीच की दूरी लखनऊ के जमाने की तुलना में कम हुआ है। सियासी विकास हुआ है। जो भी विकास हुआ है, उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। एक तरफा यह कह देना कि राज्य बनने से कुछ नहीं हुआ, गलत हो सकता है।
फिर से मुद्दे पर आते हुए, मैं मुख्यमंत्री के सवालों पर सवाल नहीं उठा रहा हूं। उनके सवाल वर्तमान स्थिति को देखते हुए सही हैं, क्योंकि माहौल ही कुछ ऐसा है। मुख्यमंत्री ने ऐसा महसूस किया होगा, तभी तो उन्होंने यह सवाल उठाए हैं, जिनको राज्य गठन के पहले दिन ही पूछा जाना चाहिए था। क्योंकि उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहने के समय अलग राज्य के लिए आंदोलन की वजह भी कुछ इसी तरह की चुनौतियां थीं, जिनके जवाब आज सीएम ने नौकरशाही से मांगे हैं।
अगर पहले दिन से ही इन पर ध्यान देकर योजनाएं बनाकर सही पात्रों तक पहुंचा दी जातीं, तो शायद आज के सवाल कुछ और होते। उत्तराखंड के बालिग होने के दिन तक क्या हमें इन सवालों के जवाब मिल जाएंगे। क्या इन पर योजना और क्रियान्वयन से कुछ रिजल्ट मिल जाएंगे। क्या हमें ऐसी उम्मीद राज्य सरकार और उसके सिस्टम से करनी चाहिए।
मुख्यमंत्री ने आईएएस वीक के उद्घाटन पर नौकरशाही से सवाल किया। जीरो बजट की कौन सी कल्याणकारी जन योजनाएं चलाई जा सकती हैं। चकबंदी कौ कैसे प्रोत्साहित किया जाए। किसान की मदद के लिए आपका क्या विजन है। स्कूली शिक्षा का स्तर कैसे सुधारा जाए। पहाड़ों में स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए क्या कदम जरूरी हैं। मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष का आम जनता के हित में अच्छे से अच्छा उपयोग कैसे होना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाओं को कैसे मजबूत किया जाए। सीएम ने नदियों को पुनर्जीवित करने को लेकर भी विचार साझा करने को कहा है।
17 साल बाद भी ये चुनौतियां दूर नहीं की जा सकीं तो कितना वक्त चाहिए उत्तराखंड के सरकारी सिस्टम को। सीएम ने उत्तराखंड की नौकरशाही से आइडिया और सहयोग मांगा है, उम्मीद है छह माह में ही सही कोई न कोई आइडिया मिल जाएगा और 9 नवंबर 2008 तक धरातल पर भी उतर जाएगा। अगर ऐसा नहीं हो सका तो समझा जाएगा कि आज भी वही हुआ है, जो वर्षों पहले से होता आया है। फिर से सवालों और संकल्पों के किस्से..।
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