सीवेज का बायो ट्रीटमेंट तो केवल इसी अपार्टमेंट में होता है

मुझे और डॉ. गौरवमणि खनाल को गुरुवार दोपहर डीआरडीओ के पूर्व निदेशक डॉ. विजयवीर सिंह और उनकी पत्नी एफआरआई से सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. नीना चौहान से मिलने का मौका मिला। वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सिंह से मिलने के लिए हमने एक दिन पहले समय लिया था। डॉ. सिंह 
मसूरी रोड स्थित गोल्डन मेनोर अपार्टमेंट में रहते हैं। 

डॉ. सिंह बायो टेक्नोलॉजी के जरिये पर्यावरण संरक्षण औऱ स्वच्छता के लिए अभिनव प्रयोग कर रहे हैं। वह चाहते हैं कि किसी भी तरह के वेस्ट का मैनेजमेंट 
केवल शिफ्टिंग तक सीमित न रहे, बल्कि इसका सही तरीके से प्रक्रियाबद्ध निस्तारण होना चाहिए। इससे रोजगार की राह भी खुल सकेगी और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचेगा। वह इस तकनीकी को हर व्यक्ति तक पहुंचाना चाहते हैं। 

उनका कहना है कि किसी भी तरह के वेस्ट का निस्तारण उसके स्रोत पर ही करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। आबादी लगातार बढ़ने से शहरों में मौजूद संसाधनों पर दबाव बन रहा है। संसाधन पूरे नहीं हुए तो कोई भी सिस्टम चोक हो सकता है। डॉ. सिंह ने एसटीपी (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट) की जगह बायो एसटीपी लगाने पर जोर दिया। बताते हैं कि कोई भी ट्रीटमेंट सिस्टम केवल इलेक्ट्रीसिटी के भरोसे न हो, बल्कि इसमें बायो टेक्नोलॉजी का भी भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिए। तभी इसको पर्यावरणीय मानकों के अनुरूप बनाया जा सकेगा। 

डॉ. सिंह ने गोल्डन मेनोर अपार्टमेंट में बायो एसटीपी को डेवलप किया है। उनका कहना है कि जैविक संसाधनों से किया ट्रीटमेंट पर्यावरण के अनुकूल होता है। यह ठीक बायो टायलेट की तरह काम करता है। अपार्टमेंट परिसर की लगभग 300 गज जगह पर एक हजार की आबादी के लिए यह प्लांट तैयार किया गया है। हालांकि इन दिनों अपार्टमेंट में लगभग 400 के आसपास लोग निवास कर रहे हैं। 

डॉ. सिंह हमें मौके पर ले गए और पूरे सिस्टम को विस्तार से समझाया। बताते हैं कि अंडरग्राउंड टैंकों में सीवेज का स्वचालित बायोट्रीटमेंट हो रहा है। यहां दो टैंक बनाए गए हैं। पहले वाले छोटे टैंक में सभी फ्लैट्स से आने वाले टॉयलेट और किचन का वेस्ट जमा होता है और फिर दूसरे बड़े टैंक में जाता है। बड़े वाले टैंक को जिगजैग शेप में बांटा गया है। इस टैंक में खास तरह के बैक्टीरिया डाले गए हैं, जो सॉलिड वेस्ट को अपने आहार के रूप में ग्रहण करते हैं और इसको पानी बनाते हैं। ये बैक्टीरिया आक्सीजन के बिना भी जीवित रहते हैं। वहीं इसी टैंक में लगाई गई प्लास्टिक मैंब्रेन वेस्ट के एसिड इफेक्ट को खत्म कर देती है। 

एक औऱ खास बात यह कि दूसरे बड़े टैंक की छत पर करीब डेढ़- दो मीटर मिट्टी बिछाकर खास तरह की प्रजाति लैगून के पौधे लगाए गए हैं, जिनकी जड़ें टैंक की छत तक पहुंच जाती हैं। बड़े टैंक में ट्रीटमेंट के बाद पानी को इन जड़ों से होते हुए गुजारा जाता है। दो बार ट्रीटमेंट हुआ पानी दो बड़े टैंकों में इकट्ठा होता है, जिसे अपार्टमेंट के फर्श को धोने, बागवानी को सींचने मे इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह से जल संरक्षण की दिशा में भी बड़ी पहल हो रही है।  

डॉ. सिंह बताते हैं कि इस टैंक में बैक्टीरिया केवल एक बार ही डाला जाता है। यह बैक्टीरिया कभी खत्म नहीं होता। इस प्लांट की लागत लगभग 20 लाख रुपये बताई। अभी इस प्रोजेक्ट पर और रिसर्च की जा रही है। बताते हैं कि यह प्लांट अन्य से बेहतर इसलिए है, क्योंकि इसको कभी साफ करने की जरूरत नहीं है। जबकि सेप्टिक टैक को साफ करना पड़ता है। इससे साफ हुआ पानी पर्यावरण के मानकों के अनुरूप है। ओवर फ्लो होने की स्थिति में इसका खुले में बहाने से कोई दिक्कत नहीं होगी। 




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