देहरादून जाते वक्त रास्ते में पड़ने वाले हर गांव में रावण के पुतले फूंकने के इंतजार में खड़े नजर आए। इनको बच्चों ने बड़ों की मदद से तैयार कराया होगा। रावण फूंकना अब किसी खेल की तरह हो गया है, वो भी गली-गली या फिर किसी बड़े मैदान में। उसके पुतले में भरे पटाखों की आवाज बच्चों को खुश करती है और यह भी दर्शाने की कोशिश होती है कि इस रावण को फूंकने में कितनी लागत आई है।
देहरादून के परेड मैदान में बचपन से हर दशहरे पर रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों को बड़ी शान से खड़ा हुआ और फिर राख में मिलता देखता आया हूं। थोड़ा अंधेरे में दूर से किसी विशाल आकृति को आतिशबाजी के शोऱ में फूंकता देखना वाकई रोमांचित करता है। बच्चों को भी दिखाते हैं फूंकता हुआ रावण औऱ बताते हैं कि बेटा बुराई को एक दिन इसी तरह जलकर धूल में मिल जाना होता है। अहंकार जब रावण का भी नहीं रहा तो धरती पर रहने वाले किसी भी मानव का भी नहीं रह सकता। दशहरे पर निबंध लिखते वक्त हम इन सभी बातों को लिखते थे। असत्य पर सत्य की जीत और बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है दशहरा। अखबारों में भी दशहरा पर विशेष खबर प्लान की जाती रही है। शहर या प्रदेश की दस बड़ी समस्याएं, दशहरे पर लगभग सभी स्थानीय अखबारों में दिखाई पड़ती हैं।
मैं यहां किसी शहर या राज्य की न तो दस समस्याएं गिनाने वाला हूं और न ही इनके लिए कोई प्रवचन करने वाला हूं। मैं तो गांवों से लेकर शहरों, यहां तक कि गली-गली रावण के शान से खड़े होने का जिक्र कर रहा हूं। शाम होते ही यह फूंक दिया जाता है। हर साल यह सीन रीटेक हो रहा है और बचपन से लेकर आज तक रावण के वध पर एक या दो सटीक बातें ही सुनते रहे हैं- असत्य पर सत्य की जीत और बुराई पर अच्छाई की विजय। ये प्रतीक वाक्य तब से कहे जा रहे होंगे, जब से रावण के दहन की शुरुआत हुई होगी। कितनी पीढ़ियां गुजर गईं यही सुनते-सुनते। दशहरा पर रावण को फूंकने की वजह या तो हम लोग समझ नहीं पाए या फिर इसको एक दिन का त्योहार, मेला मानकर भुला दिया गया है।
क्या वो दिन भी आएगा, जब हमारे पास कागज, गत्ते, फूस और लकडि़यों के रावण बनाकर फूंकने की कोई वजह नहीं होगी। क्या वो दिन भी आएगा, जब हम दशहरा पर रावण का सार्वजनिक तिरस्कार करके समाज को कोई संदेश देने की जरूरत नहीं समझेंगे। गली-गली रावण बढ़ने से इस सवाल का जवाब मिल गया है, वो यह कि ऐसा दिन कभी नहीं आएगा, आज जैसे हालात देखते हुए। तो यह समझा जाए कि दशहरा समाज को अपना संदेश देने में विफल साबित हो रहा है या हम उसको समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे। या फिर गली-गली बढ़ते पुतले बता रहे हैं कि उस समय एक ही रावण था, अब तो इतने हो गए हैं कि इनके प्रतीकों को गलियों में खड़ा करके फूंकना पड़ रहा है।
यह तो जरूर कहूंगा कि लगातार बढ़ते ये रावण उस रावण से भी ज्यादा खतरनाक हैं, जिसको आज गली-गली तिरस्कार और फिर फूंकने पर मजबूर होना पड़ रहा है। आज के रावण जगह-जगह सम्मान पा रहे हैं। इनका कृत्य किसी से छिपा नहीं है, लेकिन मजबूरी है इनको मानना। दशहरा मनाना है तो तिरस्कार उस रावण का नहीं बल्कि उनका होना चाहिए, जो बुराइयों को फैलाकर अच्छा होने का पुरस्कार हासिल कर रहे हैं। जो साथ होने का दावा, वादा करते हुए भी हमारे हितों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। सेवाओं और सुविधाओं के नाम पर हमारे साथ धोखा कर रहे हैं। जो अनैतिक हैं पर बातें हमेशा नैतिकता की करते हैं। जो दहशत फैलाकर सुरक्षा पर भाषण देते हैं। और भी न जाने कितने तरह के वायरस हैं, जिनकी बुराइयों को दशहरे पर दहन करने का मन करता है, लेकिन इसके लिए जिस साहस और ताकत की जरूरत होगी, वो मेरे पास नहीं है। यह मेरा और मेरे जैसे तमाम लोगों की कमजोरी है कि हम अपनी ताकत का सही समय पर सही इस्तेमाल नहीं करते।
अगर मुझे आज दशहरा पर निबंध लिखने का मौका मिलता तो मेरी कुछ लाइनें ये भी होतीं। दशहरा एक त्योहार है, जिससे पता चलता है दिवाली आने वाली है। इस दिन शादियां खूब होती हैं और खरीदारी भी बहुत। दफ्तरों और स्कूलों की छुट्टी होती है इस दिन। लोग सुबह से ही मेला जाने की तैयारी करते हैं और पुलिस प्रशासन सुरक्षा इंतजामों में जुट जाते हैं। सड़कों पर तेज स्पीड दौड़ती गाड़ियों को रोकने का साहस पुलिस नहीं करती, क्योंकि आधे नशे में मिलेंगे और इतने सारे चालान नहीं हो सकते।
पुलिस शराब की दुकानों पर लंबी लाइन को देखते ही इसका अनुमान लगा लेती है। ये लोग रावण को फूंकने की खुशी मना रहे हैं, ऐसे में ये तो अच्छाई के साथ ही माने जाएंगे, खासकर इस दिन। कुछ फितरती लोग मेले की भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। ये लोग रावण यानी बुराई का अंत देखने आए प्रतीत होते हैं, इसलिए ये भी अच्छे ही होंगे। इसलिए इन पर शक करने को कोई गुंजाइश नहीं है। अच्छे लोग भी यहां आए हैं, जो केवल अपने बच्चों को घुमाने, कुछ खिलाने और रावण दिखाने लाए हैं, इसलिए ये तो वाकई अच्छे हैं।
इस दिन गली-गली रावण फूंका जाता है। बड़े और बच्चे मेला जाते हैं और वहां मौजूद गत्तों और लकड़ी के बने रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद को देखकर कहते हैं कि इनको बड़ी मेहनत व काफी पैसे लगाकर बनाया होगा। कौन सा पुतला रावण का है, कौन से मेघनाद और कुंभकर्ण के हैं, इसका सटीक अंदाजा लगा लेते हैं सभी। बड़े खुश होते हैं सभी रावण के कुनबे को फूंकने के लिए तैयार खड़ा देखकर। शाम होते ही इनको आग के हवाले कर दिया जाता है।
इन विशाल पुतलों और लंका के फूंकते ही आसमान में दिखने वाला आतिशबाजी का नजारा आंखों को बहुत अच्छा लगता है, लेकिन हवा में घुला यह प्रदूषण सबसे पहले आंखों पर ही अटैक करेगा, यह बात उस समय ऩजर अंदाज होती है। दशहरा मेला मैदान में दूसरी सुबह अगर कुछ बचता है तो वो है रावण की राख और दोने- पत्तल, पॉलीथिन।
हम हमेशा से ही ऐसे ही दशहरा मनाते हैं। क्योंकि हम में से अधिकतर लोग बुराइयों को खत्म करने के अपने कानूनी और संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करते या जानना ही नहीं चाहते।
जय हिंद
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