केवल चिंतन से करिश्मे की ख्वाहिश

न व्यवस्था में सुधार होता दिखता है और न ही मेरे जैसे लोगों में। अधिकतर वे ही लोग हैं, जो खुद में झांकने की कोशिश नहीं करते और न ही पहल करने जैसा कोई विचार उनके पास है। वे तो बस व्यवस्था और उसके नुमाइंदों को कोसकर दूसरों की पहल पर सुधार की आस पाले हैं। उनका इंतजार वाकई लंबा होगा और हो सकता है कि इसका कोई अंत ही न हो यानि अंतहीन। आप यह न समझे कि मैं कोई भाषण या प्रवचन देकर अपने स्तर से कोई पहल करने वाला हूं। मैं भी उन तमाम लोगों में शामिल हूं जो जन से लेकर तंत्र तक के सुधार की ख्वाहिश में पैर पसारकर निट्ठला चिंतन या निंदा में तल्लीन हैं।
आपको बता दूं मैं सोचता बहुत हूं पर सुबह या शाम होने से पहले ही भूल भी जाता हूं और फिर उसी पुराने राग को अलापने में व्यस्त हो जाता हूं जो होश संभालने के बाद से अब तक कर रहा हूं। किसी नई पहल और कुछ कर गुजरकर नाम कमाने और दूसरों का भला करने की ख्वाहिश मन से बाहर नहीं निकल पाई। मैं कभी सामाजिक चिंता में वक्त जाया करता हूं और कभी अपनी तरक्की के लिए। कुछ नहीं होता, क्य़ोंकि मेरे पास तमाम बहाने जो हैं। पहला बहाना वक्त नहीं है, जब वक्त है तो संसाधनों का रोना और जब थोड़ा संसाधन और थोड़ा वक्त होता भी है तो मैं खुद और अपने लोगों में व्यस्त होकर थोड़ी खुशी तलाशने की कोशिश करता हूं। खुशियां मिले या नहीं पर वक्त जरूर कम हो जाता है।
हम जैसे लोग दूसरों से सीखते नहीं बल्कि उनकी कमियां ढूंढने की लाख कोशिश में जरूर दिनरात एक कर देते हैं। आप समझेंगे कि फिर प्रवचन शुरू कर दिया। भाई प्रवचन करता तो जन से लेकर तंत्र तक अपना ही मंत्र चलता।


जारी


Comments