सड़कों पर नेताओं की अराजकता

रैली, बंद और जाम किसी समस्या का हल नहीं


उत्तराखंड में चुनाव नजदीक आ रहे हैं और सड़कों पर नेतागीरी बढ़ने लगी है। कभी रैली तो कभी बंद या जाम के जरिये चुनावी रिहर्सल शुरू हो गई है। यह सभी का मालूम है कि रैलियां, जाम और बंद कभी किसी समस्या का हल नहीं हो सकते, यह केवल शक्ति प्रदर्शन और प्रचार पाने का जरियाभर हैं।


देहरादून में विधानसभा का सत्र शुरू होने की सूचना मात्र से मैं और मेरे जैसे  तमाम उन लोगों की फिक्र बढ़ जाती है, जो हरिद्वार रोड से होकर शहर में आते जाते हैं। विधानसभा के बाहर बैरिकेटिंग पर ड्रामे का दौर सुबह से शाम तक बिना किसी नतीजे के जारी रहता है। कहा जाता है कि जनता की आवाज को सत्ता के कानों तक पहुंचाने के लिए सड़कों पर रैलियां निकाली जाती है, लेकिन इन रैलियों से जनता को ही सबसे ज्यादा दिक्कत होती है।


मैंने हाईवे जाम और रैलियों में मरीजों को ले जाती एंबुलेंसों को फंसे हुए देखा है। मैं खुद कई बार दफ्तर जाते हुए इनमें फंसा हूं। परीक्षा देने जा रहे छात्रों को जाम खुलने का बेचैनी से इंतजार करते हुए देखा है। क्या सत्ता तक जनता की आवाज पहुंचाने का दावा करने वाले नेताओं ने कभी यह भी सोचा है कि सड़कों पर यह शोरशराबा पब्लिक के लिए किसी पीड़ा से कम नहीं है।


कांग्रेस सत्ता में है तो सड़कों पर हंगामा करने का काम भाजपा के पास है। भाजपा सत्ता में थी तो यह काम कांग्रेस के पास था। अन्य राजनीतिक दल और उनके संगठन बराबर इस ड्रामे में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं। अगर हंगामा करना ही है तो किसी खुले मैदान में करें, रास्ता रोककर जनता को परेशान करना कहां तक सही है। प्रशासन भी राजनीतिक दबाव में आकर पहले सड़कों पर हंगामे की परमिशन देता है और फिर अराजकता से निपटने के लिए अपनी ताकत झोंकता है।




जारी....







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