क्या आपके पास है मेडिकल खर्चों के लिए पुख्ता वित्तीय सुरक्षा
थिंक फॉर टुमारो
कब रुकेगी निजी अस्पतालों में होने वाली खुली लूट
सरकारी अस्पताल कब कह सकेंगे हमारे पास नहीं है संसाधनों की कोई कमी
बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के साथ एक और बड़ी समस्या जिससे शायद ही कोई बचा हो , वह है मेडिकल के बढ़ते खर्चे। मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ , जिन्होंने बीमारी में नौकरी गंवाई और फिर जमा पूँजी अपने इलाज पर खर्च करते हुए कर्जदार हो गए। बच्चो की पढ़ाई तक छूट गई और वो दाने-दाने को मोहताज हुए और बाद में एक दिन मौत का शिकार हो गए। साफ़ है कि फाइनेंसियल सिक्योरिटी के नाम पर पर उनके पास कुछ नहीं था। बीमा कम्पनियां मानती हैं कि किसी भी ऐसे व्यक्ति का, जिस पर परिवार की जिम्मेदारी होती है, को अपनी साल भर की इनकम का दस गुना बीमा कवर चाहिए। क्योंकि इससे किसी भी हादसे के बाद उसका परिवार आर्थिक रूप से संभल सकता है। सवाल उठता है कि क्या सालभर केवल 2 लाख पगार पाने वाला 20 लाख के इन्श्योरेंस कवर का प्रीमियम देने की हालत में है , वो भी उन हालात में जब उसको सेविंग भी करनी है। बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलानी है। आखिर बच्चों में वह अपने सपनों को पूरा होता देखना चाहता है। हर माँ-बाप की इच्छा होती है कि जीवन में उनके बच्चे हर वो मुकाम हासिल करें, जिनके वो सपने देखते थे , पर हासिल नहीं कर पाए।
फिर विषय पर आते हुए एक सवाल पूछता हूँ , हमारे, आपके आस-पास काम करने वाले कितने लोग यह कहने की हालत में हैं कि वो किसी भी संकट से निपटने के लिए आर्थिक रूप से पूरी तरह तैयार हैं। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ , ऐसे लोगों की संख्या मात्र 20 फीसदी भी नहीं होगी। मैं यह बात उन लोगों की कर रहा हूँ, जिनका भारत में सबसे ज्यादा प्रतिशत है। अपर हाईक्लास की बात नहीं हो रही। बात कर रहे हैं मिडिल, लोवर मिडिल, लोवर और नीचे, जो भी कुछ बना रखा है। जो सालभर में 5 लाख पगार उठा रहे है, उनकी ही कंडीशन खराब है। लेबर क्लास के हाल का अंदाजा लगा सकते हैं।
अब बात करते हैं उन हालातों की जब कोई सरकार के सिस्टम से बाहर होकर मजबूरी में निजी सेवाओं के भरोसे आकर लुटता है। मैं सरकार और उसके किसी सिस्टम पर सवाल नहीं उठा रहा हूँ, मैं तो केवल अक्सर होने वाले उन वाकयो को याद कर रहा हूँ, जिनमें कभी गरीब पिसता और हालात से पिटता हुआ देखता हूँ। अक्सर होता है कि सरकारी अस्पताल सीरियस मरीजों को रेफर करते हैं, तर्क होता है कि रेफर नहीं करते तो मरीज की जान को खतरा हो जाता, उनके अस्पताल में सुविधा और जरूरी संसाधन नहीं हैं। रेफर मरीज को मजबूरी में निजी अस्पतालों का रूख करना पड़ता है, जहाँ पानी के पैसे भी चुकाए बिना मरीज जिन्दा तो क्या मरा भी बाहर नहीं ला सकते।
इलाज चलता है और हर बात पैसों को ध्यान में रखकर होती है। परिवार के सामने अपने मरीज की जान बचने का सवाल होता है, उसको ठीक करके घर ले जाने के लिए वो कभी डॉक्टर तो कभी फी काउंटर की दौड़ लगाता है। ऐसे भी लोग हैं जो बीमारी से लड़ते हुए साहूकार से लोन लेने, मकान, जेवर, गाड़ी बेचने जैसे हालातों का सामना करते है।
मेरे एक साथी का उदाहरण बताते हुए हालात की जानकारी देता हूँ। हरिद्वार के रहने वाले मेरे साथी की माता जी को डायबिटीज थी, इलाज चल रहा था चिंता की कोई बात नहीं थी। उनके पैर में हल्का घाव होने पर दिक्कत बढ़ी तो एक निजी डाक्टर को दिखाया, कोई फायदा नहीं होता देख एक बड़े संस्थान में इलाज शुरू कराया, यहाँ से भी कोई राहत नहीं,तबीयत ज्यादा खराब होने पर देहरादून के एक`होटल`जैसे हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया और बिल का मीटर भी चालू हो गया। आप जानते हैं कि उनको इस अस्पताल में क्यों लाया गया, क्योंकि आस-पास सरकार का कोई अस्पताल ऐसा नहीं है, जिसमें उनका इलाज होता।
तीन दिन बाद बताया गया कि उनका पैर काटना पड़ेगा। अपनी माताजी के जीवन को बचाने के लिए मेरे साथी ने अपना सब कुछ जमा और उधार लगा दिया। पैर काटने के बाद लगा कि अब वो खतरे से बाहर हैं। उनको दूसरे दिन सीरियस हालत में ही अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। बिल दे दिया 3 लाख़ से ज्यादा का, जैसे - तैसे पैसा इकट्ठा करके दिया और माताजी को घर ले गए। दिन में अस्पताल से लाये और रात को उनकी मृत्यु हो गई। मेरे इस साथी जैसे न जाने कितने लोग होंगे जो इन हालातो से गुजर रहे होंगे।
क्या सरकार जो यह दावा करती रही है कि मेडिकल क्षेत्र में सेवायें बेहतर हुईं हैं, तो फिर अधिकतर निजी अस्पताल क्यों लूटपाट कर रहें हैं। सरकारी अस्पताल गम्भीर मरीजों को इलाज देने कि बजाय संसाधनों की कमी का राग क्यों अलापते हैं। सरकारी अस्पतालों के काबिल डाकटरों को संसाधन देकर सरकार उनकी सेवाओं का लाभ पब्लिक को क्यों नहीं पहुंचाती।
बीपीएल परिवार को सरकार फ्री मेडिकल सुविधा देती है। यह अच्छी बात है , लेकिन क्या देश में उन लोगों की कमी है, जिनकी हालत बीपीएल से भी गए गुजरे है । इनकी तरफ कौन देखेगा? सरकार के ही संसाधनों वाले बड़े संस्थानों एम्स, पीजीआई सरीखे अस्पतालों में हर किसी को इलाज नहीं मिल पाता, इन पर मरीजों का भार काफी होता है और डॉक्टर तक पहुँचने में ही समय लग जाता है।
इन्तजार है आपके सुझावों का
जारी
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