2 दिसम्बर को देहरादून के रिस्पना से प्रिंस चौक के बीच सिटी बस में दस साल का एक बच्चा भी सफ़र कर रहा था। मैले कुचेले कपड़े पहने यह मासूम साथ में एक बोरा लिए था। हाथ पैर धूल से सने हुए। इन्ही हथेलियों से बार- बार अपनी एक आँख को सहला रहा था। उसकी सुर्ख़ लाल आँख से पानी बह रहा था ।
सहनशीलता मानो उसके साथ जन्म से ही है, एेसा मुझे महसूस हुआ। नहीं तो इतना कष्ट और दर्द सहने के बाद भी वह चुप था जबकि मुझे नहीं लगता कि थोड़ी देर में वह किसी डाक्टर के पास आँख दिखाने के लिए जाने वाला था। मैं अपने बच्चे की इस स्थिति का ख़्याल भी मन में नहीं ला सकता। अगर इसको देखकर अपना बच्चा याद आ जाए तो भीतर ही भीतर काँप उठूँगा।
लगता है कि देश में बच्चों के नाम पर चलने वाली योजनाएं इन जैसे मासूमों के किसी काम की नहीं। एेसा होता तो हर गली नुक्कड़ और चौराहों, क्रासिंग पर ये बदहाली में नहीं दिखते। मैं यह नहीं कह रहा कि सरकारी योजनाएँ और तंत्र बच्चों के लिए काम नहीं करते या उनके लिए नहीं सोचते । सब कुछ हो रहा है, इनकी ओर पूरी निगाह है और तमाम एनजीओ इनके िलए काम कर रहे हैं । हो सकता है कुछ इनके नाम पर एेशोआराम कर रहे हों । ख़ैर यह अलग इश्यु है और इस पर तथ्यों के साथ बात करना ठीक रहेगा ।
हम बात उन सबकी करते हैं जो दिख रहा है। बस में मिला यह बच्चा स्कूल नहीं गया होगा, यह भी उन तमाम मासूमों की तरह है जिनके लिए सुबह का मतलब स्कूल नहीं बल्कि कूड़े से प्लास्टिक और कबाड़ी के यहाँ बिकने वाला छोटा मोटा कचरा तलाशने की शुरुआत भर है।
ये आम बच्चों की तरह होमवर्क पूरा करने, सलेबस निपटाने, प्रोजेक्ट बनाने या ट्यूशन और किसी स्पोर्ट्स एक्टीविटी की चिंता नहीं करते और न ही ये इन सब बातों का जीवन में कोई मतलब जानते हैं। इनके लिए स्कूल के कोई मायने नहींं । एेसा इसलिए नहीं कि ये स्कूल से डरते हैं या कोई इनको स्कूल जाने से रोकता है । यह इसलिए कि इनको जन्म लेने से कुछ बड़े होने तक एेसा माहौल ही नहीं मिला। इन आँखों में भी सपने पलें एेसी कोई वजह इनके पास नहीं है। अगर जीने की आस बंधी है तो वो केवल शाम तक घर पर कुछ पैसे ले जाने के कारण है।
मैंने एेसा कोई बच्चा पहली बार नहीं देखा। रोज़ाना इनसे और इनकी इस ज़िंदगी से मेरा सामना होता है । इनके लिए कुछ करने की सोचता हुआ आगे बढ़कर फिर दफ़्तर व इसके बाद परिवार में मशगूल हो जाता हूँ। इस कड़ी में मैं ही नहीं मेरे जैसे तमाम लोग शामिल होंगे जो एेसा रोज़ाना या कभी कभी सोचते और फिर भूलते होंगे।
बस में मिले बच्चे के बारे में भी मैंने सोचा था पर मुझे ठीक एक घंटे में ट्रेन पकड़नी थी और थोड़ी देर में बस से उतरकर मैं रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गया । अब लिख रहा हूँ कि मैं क्या सोचता हूं। सच बात तो यह है कि लिखने से ज़्यादा बड़ी बात इनके लिए कुछ करने से होगी।
़़़़़़़़़़जारी
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सहनशीलता मानो उसके साथ जन्म से ही है, एेसा मुझे महसूस हुआ। नहीं तो इतना कष्ट और दर्द सहने के बाद भी वह चुप था जबकि मुझे नहीं लगता कि थोड़ी देर में वह किसी डाक्टर के पास आँख दिखाने के लिए जाने वाला था। मैं अपने बच्चे की इस स्थिति का ख़्याल भी मन में नहीं ला सकता। अगर इसको देखकर अपना बच्चा याद आ जाए तो भीतर ही भीतर काँप उठूँगा।
लगता है कि देश में बच्चों के नाम पर चलने वाली योजनाएं इन जैसे मासूमों के किसी काम की नहीं। एेसा होता तो हर गली नुक्कड़ और चौराहों, क्रासिंग पर ये बदहाली में नहीं दिखते। मैं यह नहीं कह रहा कि सरकारी योजनाएँ और तंत्र बच्चों के लिए काम नहीं करते या उनके लिए नहीं सोचते । सब कुछ हो रहा है, इनकी ओर पूरी निगाह है और तमाम एनजीओ इनके िलए काम कर रहे हैं । हो सकता है कुछ इनके नाम पर एेशोआराम कर रहे हों । ख़ैर यह अलग इश्यु है और इस पर तथ्यों के साथ बात करना ठीक रहेगा ।
हम बात उन सबकी करते हैं जो दिख रहा है। बस में मिला यह बच्चा स्कूल नहीं गया होगा, यह भी उन तमाम मासूमों की तरह है जिनके लिए सुबह का मतलब स्कूल नहीं बल्कि कूड़े से प्लास्टिक और कबाड़ी के यहाँ बिकने वाला छोटा मोटा कचरा तलाशने की शुरुआत भर है।
ये आम बच्चों की तरह होमवर्क पूरा करने, सलेबस निपटाने, प्रोजेक्ट बनाने या ट्यूशन और किसी स्पोर्ट्स एक्टीविटी की चिंता नहीं करते और न ही ये इन सब बातों का जीवन में कोई मतलब जानते हैं। इनके लिए स्कूल के कोई मायने नहींं । एेसा इसलिए नहीं कि ये स्कूल से डरते हैं या कोई इनको स्कूल जाने से रोकता है । यह इसलिए कि इनको जन्म लेने से कुछ बड़े होने तक एेसा माहौल ही नहीं मिला। इन आँखों में भी सपने पलें एेसी कोई वजह इनके पास नहीं है। अगर जीने की आस बंधी है तो वो केवल शाम तक घर पर कुछ पैसे ले जाने के कारण है।
मैंने एेसा कोई बच्चा पहली बार नहीं देखा। रोज़ाना इनसे और इनकी इस ज़िंदगी से मेरा सामना होता है । इनके लिए कुछ करने की सोचता हुआ आगे बढ़कर फिर दफ़्तर व इसके बाद परिवार में मशगूल हो जाता हूँ। इस कड़ी में मैं ही नहीं मेरे जैसे तमाम लोग शामिल होंगे जो एेसा रोज़ाना या कभी कभी सोचते और फिर भूलते होंगे।
बस में मिले बच्चे के बारे में भी मैंने सोचा था पर मुझे ठीक एक घंटे में ट्रेन पकड़नी थी और थोड़ी देर में बस से उतरकर मैं रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गया । अब लिख रहा हूँ कि मैं क्या सोचता हूं। सच बात तो यह है कि लिखने से ज़्यादा बड़ी बात इनके लिए कुछ करने से होगी।
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