तकधिनाधिन की टीम कहीं जाए और बच्चों से मुलाकात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। हम तो हमेशा तैयार हैं बच्चों से बातें करने के लिए। उनकी कहानियां और कविताएं सुनने के लिए। इस बीच अवसर मिलता है तो अपनी भी कुछ कहानियां सुना देते हैं। पर हमारी कोशिश रहती है कि साझा संवाद हो। पहले बच्चों को सुना जाए, उनको जानने की पहल की जाए। बच्चे भी बहुत कुछ सोचते हैं और उनके पास भी बहुत सारे सवाल हैं और जवाब भी। जिज्ञासा होगी तो सवाल पूछेंगे और सवालों के जवाब मिले तो जानकारी बढ़ेगी, इसलिए बच्चों में अपने सवाल बेहिचक पूछने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलना ही चाहिए।
खैर, इस बार मानवभारती प्रस्तुति तक धिनाधिन के पड़ाव थे केदारघाटी के गांव। मंगलवार 24 सितंबर 2019 की सुबह हम बणसू गांव में थे। बणसू गांव ऊखीमठ ब्लाक का बेहद शानदार गांव है, जहां बेशुमार हरियाली है। ऊखीमठ से गुप्तकाशी और वहां से करीब नौ किलोमीटर दूर स्थित है बणसू गांव। बणसू में जवाहर नवोदय विद्यालय के पास प्राथमिक विद्यालय और आंगनबाड़ी केंद्र हैं। प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश करते ही सबसे पहले आंगनबाड़ी केंद्र का भवन दिखा, जिसमें हमारी मुलाकात सरोजिनी देवी जी से हुई। सरोजिनी जी यहां आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं और बणसू गांव में ही रहती हैं।
सरोजिनी जी से हम बहुत प्रेरित हुए। प्रेरणा की वजह क्या है इस पर कुछ ही दिन में बात करेंगे। फिलहाल उनके सम्मान में यह रचना जरूर प्रस्तुत करना चाहूंगा –
हिमालय पर जिंदगी हम, हिमालय सा हौसला हम।
हिमालय की शान हैं हम, हिमालय की जान हम।।
आंगनबाड़ी केंद्र भवन के सामने है बणसू का प्राइमरी स्कूल और इन दोनों भवनों के बीच में है एक मैदान। दोनों भवन और उनका संयुक्त मैदान बाउंड्रीवाल से सुरक्षित है। यह मैदान ज्यादा बड़ा तो नहीं है पर छोटे बच्चों के खेलने कूदने के लिए काफी है। जब हम यहां पहुंचे तो मिड डे मील के बाद बच्चे घास के इस मैदान में खेल रहे थे। कुछ छोटे बच्चों को तो हमने मैदान में लोट लगाते हुए देखा, जो बहुत खुश नजर आ रहे थे। एक-दो बच्चे अभी भोजन कर रहे थे।
कुछ बच्चे एक दूसरे को पकड़ने के लिए दौड़ लगा रहे थे। यहां हमने बच्चों को उत्साह और बेफिक्र खेलते कूदते देखा। मैं तो केवल यही समझा कि खाना पचाने के लिए दौड़ना जरूरी है और दौड़ते हुए कहीं गिर भी जाओ तो मैदान में बिछी घास आपको चोट नहीं लगने देगी। मेरा बचपन भी कुछ ऐसा ही बीता, पर वर्तमान में देहरादून शहर में अधिकतर बच्चों को खेलने के लिए मैदान ही नहीं मिल पा रहे हैं। उनके खेलने के मैदान स्क्रीन साइज हो गए। कंप्यूटर या फिर मोबाइल ही उनके खेलने के मैदान हैं, जहां स्वस्थ रहने की संभावना नहीं है।
हमें देखकर कुछ बच्चों ने सर जी गुड मार्निंग कहा। हमने भी गुड मार्निंग में जवाब दिया और फिर शुरू हुआ परिचय का सिलसिला। बच्चे ही हमें अपनी शिक्षिका के पास ले गए। प्राइमरी विद्यालय की शिक्षिका शांति बर्थवाल जी को हमने अपना परिचय दिया और तकधिनाधिन के बारे में बताया। शिक्षिका शांति बर्थवाल जी ने बताया कि इस स्कूल में बच्चों को कहानियां और कविताएं सुनाई जाती हैं।
हमें यह जानकर बहुत खुशी हुई, क्योंकि कहानियां अनुभवों और संदेशों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने का शानदार माध्यम हैं। इनको बच्चे बड़े ध्यान से सुनते हैं और कहानियां हमेशा याद रहती हैं। हमारे साथ मैनेजमेंट स्टडी के जानकार जतिन कक्कड़ भी तकधिनाधिन में शामिल हुए। जतिन वर्तमान में रुड़की आईआईटी के मैनेजमेंट स्टडी विभाग में कार्य कर रहे हैं। सोशल वर्कर हिकमत सिंह रावत व मृगेंद्र सिंह भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बने।
शिक्षिका रचना रावत जी ने बच्चों को कहानियां सुनने के लिए घास के मैदान पर गोल घेरा बनाकर बैठने के लिए कहा। एक बात जो हमें बहुत अच्छी लगी कि शिक्षिका के एक निर्देश पर बच्चे कुछ ही देर में बेहद अनुशासित तरीके से मैदान पर गोल घेरा बनाकर बैठ गए, वो भी उस समय जब वो पूरे मैदान में दौड़ लगाते हुए और घास पर लौट लगाते हुए खेल रहे थे।
अक्सर देखने में आता है कि कक्षा एक से आठ तक के बच्चों को पंक्तिबद्ध बैठाने में काफी समय लगता है। यहां तो पांचवी तक के छोटे बच्चे थे। उनके साथ आंगनबाड़ी के बच्चे भी थे। आंगनबाड़ी का एक बच्चा तो बेल बजते ही अपना खाना छोड़कर क्लास की ओर जाने के लिए खड़ा हो गया। सहायिका ने उसको बैठाकर खाना खिलाया। इसका मतलब यह हुआ कि छोटे बच्चे बेल बजने और समय का महत्व जानने लगे हैं, इसका श्रेय शिक्षिकाओं और बच्चों की देखरेख करने वाली सहायिकाओं को जरूर जाना चाहिए। आपको तो पता ही है कि तकधिनाधिन की टीम कहीं भी जाए, उसके साथ पेड़ वाला सवाल जरूर घूमने जाता है। हमने गोल घेरे में बैठे बच्चों से पूछ लिया, पेड़ घूमने क्यों नहीं जाता। हम यह जानकर हैरत में पड़ गए कि यहां तो सभी बच्चों के पास कुछ न कुछ जवाब था। छोटे बच्चे भी जवाब बताने के लिए हाथ उठा रहे थे। यहां शिक्षिकाओं ने बच्चों को सिखाया है कि कुछ पूछने या बताने से पहले अनुशासित तरीके से हाथ उठाकर परमिशन लेनी चाहिए। प्रिंस ने कहा- सर जी, अगर पेड़ घूमने चला गया तो हम उसको पानी नहीं दे पाएंगे। स्पष्ट है कि प्रिंस और उसकी साथी पेड़ पौधों के महत्व को जानते हैं और उनको पानी देते हैं।
इसी तरह अतुल ने कहा, पेड़ के पैर नहीं होते। बच्चों के जवाब कुछ इस तरह थे, पेड़ की जड़ें जमीन में होती है, इसलिए घूमने नहीं जाता। वो घूमने चला गया तो खेतों को खराब कर देगा। वो सड़कों को तोड़ देगा। वो इधर-उधर घूमेगा। मौका देखा और हमने सवाल को ही घूमा दिया, पेड़ अगर घूमने जाता तो क्या होता। जवाब मिला, वो हमें दिखाई नहीं देता। वो दौड़ता रहता। वो गाड़ियों को तोड़ देता। एक बच्चे ने हमारे सवाल पर ही सवाल उठा दिया कि पेड़ घूमने नहीं जाता, वो तो एक ही जगह खड़ा रहता है।
अब हमने पूछा, पेड़ हमें क्या देता है। अलग- अलग बच्चों के जवाब कुछ इस तरह हैं- फल, छाया, हवा, आक्सीजन, पानी, खाना, पत्ती, चारा, लकड़ी, फल….। अगर यह घूमने चला जाएगा तो क्या होगा, बच्चे बोल उठे, हमें छाया कौन देगा, फल कौन देगा, आक्सीजन कौन देगा, पत्ती कौन देगा, लकड़ी कौन देगा। बच्चे अब पेड़ के महत्व को बहुत अच्छे से जान चुके थे और एक साथ बोले, पेड़ों की रक्षा करो, पेड़ों को काटो नहीं। इसी तरह हमने सवाल पूछा, अगर हवा छुट्टी पर चली जाए तो एक बिटिया बोली, हवा को छुट्टी नहीं दे सकते।
उनकी शिक्षिका ने पूछा, क्यों छुट्टी नहीं दे सकते, आप तो छुट्टी लेते हो, तो हवा क्यों नहीं। एक और बच्चे ने कहा, हवा रुक गई तो सांस नहीं ले पाएंगे। सभी ने तालियां बजाकर इस जवाब का स्वागत किया। हमने कहा, हवा तो आपके लिए बहुत कुछ करती है पर आप तो हवा को परेशान करते हो। बच्चों ने कहा, हम परेशान नहीं करते हवा को। यहां तो बहुत हवा चलती है।
छोटे बच्चों ने हमें मछली जल की रानी है…, आलू कचालू बेटा कहां गए थे…., छह साल की छोकरी,. भरकर लाई टोकरी… कविताएं, अभिनय करके सुनाईं। यहां सभी बच्चे अपनी अपनी कविताएं सुनाने को तैयार थे। हमने बच्चों को साहसी नन्हा पौधा कहानी सुनाई। बच्चों ने तालियां बजाईं और एक बच्चे ने हमें बताया कि प्रकृति कौन हैं। उसने कहा, पेड़, पौधे, मिट्टी, जल, पहाड़ जिसने बनाए, वह प्रकृति है। हमारी इच्छा थी कि बच्चों के साथ और ज्यादा समय बिताए, पर समय कम था। हमें बणसू गांव के निवासियों से बातें करनी थी। बच्चों से फिर मिलने का वादा करते हुए तक धिनाधिन की टीम ने विदा ली।
हिमालय की शान हैं हम, हिमालय की जान हम।।
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